हम बेजुबा, हैं हम बेगुनाह हैं..(कविता)

दर-दर भटकता हूं मैं,
क्योंकि मैं बेजुबान हूं...
अपने पेट को भरने के लिए,
लोगों की मार खाता हूं मैं..
क्योंकि मैं मजबूर हूं।

इंसानियत भूल गई ये दुनिया,
इतने जुर्म हम पर दिखाए हैं..
हम नहीं कहते कि हम पर कोई उपकार करो,
बस एक एहसान करो हम बेजुबान को परेशान ना करो...

हम  वह है जिसके बिना समाज अधूरा है,
हम मानते हैं हमें इतनी समझ नहीं,,
हमारा दर्द भी इंसानों से कम नहीं,
हम रोकर अपने दर्द को दिखा नहीं सकते.
हम बेजुबा, हैं हम बेगुनाह हैं...

मेरी यह मजबूरी ही इंसानों का व्यवसाय बन गया,
सरकार चलाने का एक बड़ा मुद्दा बन गया,,
जब निकाल लिया  हमसे अपना फायदा,
तब उठाकर कचरे के ढेर में फेंक दिया,
हमें अपने आप को खत्म करने को मजबूर कर दिया.....

छप्पन भोग तो खुद खा गए,
हमको  कूड़ा-कचरा खाने को मजबूर कर गए,
यही कहकर हम सहम जाते कि हम बेजुबा हैं, नासमझ है हम लाचार हैं,
बस यही गलती है मेरी हम एक जानवर हैं, हम एक जानवर हैं...........

                  ✍️✍️✍️✍️✍️✍️
                                              -विवेक कुमार साहू
                                              -7607552695

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